8 अगस्त, १९५७

 

          मां, श्रीअर्रावंद यहां कहते हैं : ''समूची मानवजाति (अति- मानसिक प्रभावके) स्पर्शको प्राप्त करेगी या परिवर्तनके लिये तैयार उसका केवल एक भाग, यह इस बातपर निर्भर है कि विश्वके धारावाहि-क्रममें क्या अभिप्रेत या संभव है ।''

 

(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

       ''क्या अभिप्रेत या संभव है'' का क्या मतलब है? ये दोनों तो अलग-अलग बातें है । अभीतक आप कहती रहो हैं कि यदि मानवजाति परिवर्तित हो जाय, यदि वह नवजन्ममें भाग लेना चाहे...

 

 दोनों बातें एक ही है । जव तुम किसी चीजको रवास एक स्तरसे देखते हों तो तुम उसे पडी रेखामें देखते हों और जब दूसरे स्तरसे देखने हो

 

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तो खड़ी रेखामें देरवते हो (श्रीमां अपनी पुस्तकका आवरण और पृष्ठ भाग दिखाती हैं) । तो यदि तुम ऊपरसे देखो तो कहोगे ''अभिप्रेत'' है; और नीचेसे देखनेपर कहोगे ''संभव'' है.. । पर यह है बिलकुल एक ही बात, केवल देखनेके दुष्टि-बिंदुका फर्क है ।

 

        परंतु उस स्थितिमें, हमारी अक्षमतासे या परिर्क्तनेच्छाके अभावसे उसमें कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये ।

 

 हम इस बारेमें पहले कई बार कह चुके है । यदि तुम उस चेतनामें रहते हो जो मनद्वारा कार्य करती है, चाहे वह उच्चतम मन ही क्यों न' हो, तो तुम्हें यह बोध होता है कि कारण और परिणाम पूर्णतया नियत है और तुम महसूस करते हो कि वस्तुएं जैसी है वैसी वे इसीलिये हैं क्योंकि ३ उससे भिन्न हा ही नहीं सकतीं ।

 

      जब तुम मानसिक चेतनासे पूरी तरह बाहर निकल आते हों और वस्तुओं-संबंधी उच्चतर बोधमें -- जिसे तुम आध्यात्मिक या दिव्य कह सकते हो -- प्रवेश पा जाते हो, केवल तभी तुम अपने-आपको एकाएक पूर्ण स्वतंत्रताकी अवस्थामें पाते हो जहां सब कुछ संभव है ।

 

 ( मौन)

 

       जिन लोगोंने उस अवस्थाका स्पर्श पाया है अथवा उसमें रहे है, चाहे क्षण-भरके लिये ही सही, उन्होंने उसका वर्णन इस रूपमें करनेका प्रयत्न किया है कि वह एक सर्व-समर्थ पूर्ण निरपेक्ष 'संकल्प' है, और यह चीज मानव मनमें तुरत यह भाव पैदा करती है कि वह स्वेच्छाचारी है । इसी विकृतिके कारण उस विचारकी उत्पत्ति हुई -- जिसे मैं परंपरागत कहती नष्ट -- कि एक सर्वोपरि निरंकुश भग वान् है, जिसे किसी भी आलोकित मनके लिये स्वीकार करना संभव नहीं । मेरा ख्याल है कि ठीक ढंगसे व्यक्त न किया गया यह अनुभव ही उस भावनाका मूल-स्रोत है । असलमें इसे पूर्ण निरपेक्ष 'संकल्प' कहना गलत है : यह उससे बहुत, बहुत, बहुत भिन्न है । यह बिल्कुल दूसरी ही चीज है । कारण, मनुप्य ''संकल्प'' से ऐसा समझता है कि वह एक निर्णय है जो किया जाता ओर कार्यान्वित किया जाता है । हम ''संकल्प'' शब्दका प्रयोग करनेको विवश होते है पर विश्व- मे क्रियारत 'संकल्प' वास्तवमें न तो किया गया चुनाव है और न ही निर्णय । इसके लिये जो शब्द मुझे निकटतम प्रतीत होता है वह है

 

ईक्षण, अंतर्दर्शन । वस्तुओंकी विद्यमानता इसलिये हुए क्योंकि वे देखी गयी थीं । स्वभावत: यह ''देखना'' वही नहीं है जैसा हम इन आंखोंसे देरवते हैं (श्रीमां अपनी आंखोंके छूती है), फिर भी यही निकटतम है । यह हुक अंतर्दर्शन है -- अपने-आपको उन्मीलित करता हुआ एक अंतर्दर्शन ।

 

         क्रमिक रूपमें जैसे-जैसे विश्वका ईक्षण चलता है -- वह वस्तुगत रूप लेता जाता है ।

 

         इसीसे श्रीअरविन्दने कहा है ''अभिप्रेत या संभव है । '' यह न तो एक चीज है, न दूसरी । जो कुछ भी हम कहते है वह एक विक़ुति है ।

 

 ( मौन)

 

       वस्तुगत रूप धारण करना - विश्वका वस्तुगत रूपमें आना -- एक ऐसी चीज है मानो यह शाश्वत कालसे विद्यमान वस्तुका देश ओर कालमें प्रक्षेप हों, उसका मानों एक सजीव बिम्ब हों । और जैसे-जैसे यह बिंब देश और कालके पर्देपर प्रक्षिप्त होता है यह वस्तुगत रूप लेता जाता है ।

 

       परम पुरुष 'अपना बिंब' निहार रहे होते है ।

 

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